
आध्यात्मिक बौद्धिक व्यायाम (Adhyatmik Bauddhik Vyayam)
दैनंदिन कार्य करने, परीक्षा या नौकरी-धंधे में अच्छे परिणाम लाने, कुटुम्ब-परिवार का उत्तम प्रकार से पालन-पोषण तथा अपनी व दूसरों की आध्यात्मिक उन्नति करने - सभी प्रकार के कार्यों को सुंदर ढंग से सम्पन्न करने के लिए बुद्धि व स्मृतिशक्ति की बड़ी आवश्यकता होती है ।
बच्चों को अपनी महान संस्कृति की परम्पराओं को समझाने एवं उनकी जिज्ञासा की पूर्ति के लिए भी उत्तम तर्कशक्ति, बुद्धिशक्ति की जरूरत है ।
भारतीय संस्कृति तथा भारत के ऋषि-मुनियों, ब्रह्मज्ञानी संत-महापुरुषों का ज्ञान तो अपने-आपमें महान है ही लेकिन उसे समझने, उसका सदुपयोग करने एवं उसके माध्यम से जीवन में भगवत्प्रेम लाकर जीवन को महान बनाने के लिए श्रद्धा, सत्संग, भगवत्प्रीति से परिपूर्ण सुसंस्कृत मति की विशेष आवश्यकता रहती है । इसके लिए बुद्धिजीवी होना पर्याप्त नहीं, बुद्धियोगी होना आवश्यक है । भारतीय संस्कृति क्षण-क्षण में बदलनेवाली मान्यताओंवाले ‘मन’ के स्थान पर ईश्वरनिष्ठ, सुनिश्चयसम्पन्न बुद्धि को महत्त्व देती है, जो आत्मा के साथ अपने नित्य योग को पहचान सके । भगवान श्रीकृष्ण ने गीता (18.57) में कहा भी है ः
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ।।
‘बुद्धियोग (आत्मज्ञान में निष्ठा) का आश्रय लेकर निरंतर मुझमें चित्तवाला हो जा ।’
अतः बुद्धि को कुशाग्र बनाना आवश्यक है ही किंतु उसके साथ उसमें भगवद्भाव के संस्कारों का सिंचन करते हुए उसे सुबुद्धि, सद्बुद्धि, भगवत्प्रसादजा बुद्धि बनाना भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है ।
सगर्भावस्था में माता की तर्कशक्ति, अनुमानशक्ति, निर्णयशक्ति एवं सकारात्मक व आध्यात्मिक विचारशैली को विशेष जागृत किया जाय तो उसका लाभ माता के साथ-साथ उसके गर्भ में पोषित हो रहे ग्रहणशील शिशु को भी मिलता है । जिस प्रकार किसी भी वस्तु के निर्माणकाल में उस पर की गयी मेहनत उसे अत्यंत सुंदर रूप देती है, उसी प्रकार मनुष्य-जीवन के निर्माणकाल अर्थात् गर्भकाल के दौरान उसके विकसित होते मस्तिष्क की विभिन्न शक्तियों को जागृत करने के लिए किया गया हर प्रयास उसके जीवन को सुशोभित बनाता है ।
गर्भस्थ शिशु के अलावा बच्चे, बड़े, युवा, स्त्री, पुरुष - सभी आयु-वर्ग के लोगों को भी इन शक्तियों, योग्यताओं का लाभ मिले इस उद्देश्य से यह पुस्तक आपके करकमलों में अर्पित है ।
क्या आप जानते हैं?
यह बात बहुत कम लोग जानते हैं और वैज्ञानिक व शास्त्रीय दृष्टि से प्रमाणित भी है कि मनुष्य का बौद्धिक विकास उसके बाल्यकाल से नहीं बल्कि गर्भावस्था से ही शुरु होता है । वास्तव में इस अवस्था में जो बौद्धिक विकास एवं संस्कार-सिंचन हो सकता है वैसा अथवा उसके तुल्य और उतनी सहजता के साथ शायद ही जीवन की अन्य अवस्थाओं में हो सकता हो !
इस दृष्टि से स्मृति, मति एवं संस्कारों को इस महत्त्वपूर्ण अवस्था में सुंदर ढंग से परिपुष्ट करने के लिए यह पुस्तक वरदानरूप साबित होगी ।
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