
निरोगता का साधन(Neerogta Ka Sadhan)
(ब्रह्मलीन स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज के अमृतवचन)
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संयम अर्थात् वीर्य की रक्षा। वीर्य की रक्षा को संयम कहते हैं। संयम ही मनुष्य की तंदुरुस्ती व शक्ति की सच्ची नींव है। इससे शरीर सब प्रकार की बीमारियों से बच सकता है। संयम-पालन से आँखों की रोशनी वृद्धावस्था में भी रहती है। इससे पाचनक्रिया एवं यादशक्ति बढ़ती है। ब्रह्मचर्य-संयम मनुष्य के चेहरे को सुन्दर व शरीर को सुदृढ़ बनाने में चमत्कारिक काम करता है। ब्रह्मचर्य-संयम के पालन से दाँत वृद्धावस्था तक मजबूत रहते हैं।
संक्षेप में, वीर्य की रक्षा से मनुष्य का आरोग्य व शक्ति सदा के लिए टिके रहते हैं। मैं मानता हूँ की केवल वीर्य ही शरीर का अनमोल आभूषण है, वीर्य ही शक्ति है, वीर्य ही ताकत है, वीर्य ही सुन्दरता है। शरीर में वीर्य ही प्रधान वस्तु है। वीर्य ही आँखों का तेज है, वीर्य ही ज्ञान, वीर्य ही प्रकाश है। अर्थात् मनुष्य में जो कुछ दिखायी देता है, वह सब वीर्य से ही पैदा होता है। अतः वह प्रधान वस्तु है। वीर्य ही एक ऐसा तत्त्व है, जो शरीर के प्रत्येक अंग का पोषण करके शरीर को सुन्दर व सुदृढ़ बनाता है। वीर्य से ही नेत्रों में तेज उत्पन्न होता है। इससे मनुष्य ईश्वर द्वारा निर्मित जगत की प्रत्येक वस्तु देख सकता है।
वीर्य ही आनन्द-प्रमोद का सागर है। जिस मनुष्य में वीर्य का खजाना है वह दुनिया के सारे आनंद-प्रमोद मना सकता है और सौ वर्ष तक जी सकता है। इसके विपरीत, जो मनुष्य आवश्यकता से अधिक वीर्य खर्च करता है वह अपना ही नाश करता है और जीवन बरबाद करता है। जो लोग इसकी रक्षा करते हैं वे समस्त शारीरिक दुःखों से बच जाते हैं, समस्त बीमारियों से दूर रहते हैं।
जब तक शरीर में वीर्य होता है तब तक शत्रु की ताकत नहीं है कि वह भिड़ सके, रोग दबा नहीं सकता। चोर-डाकू भी ऐसे वीर्यवान से डरते हैं। प्राणी एवं पक्षी उससे दूर भागते हैं। शेर में भी इतनी हिम्मत नहीं कि वीर्यवान व्यक्ति का सामना कर सके।
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