
गागर में सागर
वेदों को सागर की उपमा दी गयी है । वे ज्ञान के सिंधु तो हैं किंतु जन-सामान्य उनको उपयोग में नहीं ला पाते । उस अथाह ज्ञानराशि को अपने स्वाध्याय, तप एवं आत्मानुभव की ऊष्मा से बादलों का रूप लेकर फिर भक्तवत्सलता के शीतल पवन के बहने पर अमृतवाणी की धाराओं से बरसाते हैं ब्रह्मनिष्ठ लोकसंत ।
ऐसे संतों की वाणी में साधना की सुगम रीति मिलती है, आत्मज्ञान की समझ मिलती है, सच्चे सुख की कुंजी मिलती है, शरीर-स्वास्थ्य के नुस्खे मिलते हैं और उन्नत जीवन जीने की सर्वांग-सम्पूर्ण कला ही मिल जाती है । पूज्य संत श्री आशारामजी बापू के सद्गुरु ब्रह्मलीन ब्रह्मनिष्ठ भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज के सत्संग-प्रवचनों का संकलन है पुस्तक ‘गागर में सागर । सागररूपी शास्त्रों का सार मनुष्य की छोटी समझरूपी बुद्धि की गागर में उतारने की क्षमता इस छोटी-सी सत्संग-पुस्तिका में है । इसमें है :
* कुसंग से बचो, सत्संग करो
* सर्वदा आनंद में, शांतमना होकर रहो
* मुक्ति का साधन : मन
* जगत से प्रीति हटाकर आत्मा में लगायें
* कैसे हों परम सुखी ?
* भोग को सदैव रोग समझो
* पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं
* दुनिया तो मुसाफिरखाना है
* बुद्धिमान कौन ?
* क्या है सबसे श्रेष्ठ उपलब्धि
* भोजन का प्रभाव
* द्वैत का मूल कल्पना में
* विकारों से बचने हेतु क्या करें ?
* शांति कैसे पायें ?
* मूल में ही भूल है, उसे निकालें कैसे ?
* ...तो दुनिया में नहीं फँसोगे !
* आर्य वीरो ! अब तो जागो...
* प्रसन्नता का महामंत्र
* परम कल्याण का मार्ग
* जीवन का अत्यावश्यक काम
* वेदांत का सार ब्रह्मज्ञान के सत्संग में
* सभी शास्त्रों का सार...
* संसार की चीजें बेवफा हैं
* अभिभावकों के लिए – बालक सुधरे तो जग सुधरा
* बिनु सत्संग विवेक न होई...
* क्या है जन्म-मरण का मूल कारण ?
* स्वतंत्रता माने उच्छृंखलता नहीं
* अविद्या का पर्दा हटाकर देखें !
* सत्संग को आचरण में लायें
* मन के द्रष्टा बनो
* महापुरुषों का सहारा लेना क्यों आवश्यक ?
* निंदा-स्तुति की उपेक्षा करें
* ...नहीं तो सिर धुन-धुनकर पछताना पड़ेगा
* सत्संग-विचार ही जीवन का निर्माता
* विवेकी बनो
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